16 February 2011

मुद्दा

हमारे देश में जो भी क़ानून है वो सभी पछिम देशो कि uapaj है । वहाँ के परिधान में यहाँ कि गर्मी के समय में भी क़ानून वाय्व्था चलती है । इसका अनुसरण कितना तगड़ा है यही सोचा जा सकता है ।

पर बहुत से क़ानून लाने में ये सरकारे बहुत कमज़ोर है जो कि साफ़ पता चलता है
सूचना का अधिकार का कानून इस परकार नहीं आया इसके पीछे बिल लाया गया गया
और ये उपज थी " अरविन्द कज़रिवल " की अरविन्द कज़रिवल जी एक बहुत बड़े समाज सुधारक है
जिन्होंने सूचना का अधिकार लाये

इसी पकार कई क़ानून है लोगों और वकीलों की भलाई के लिए
इस के लिए बकील समाज को अपने मुद्दे खुद उठाने होंगे ...


अमेरिका में एक सिविल कानून में है कि कोई अगर केस करता है तो उसे आने कि जरुरत नहीं है और उसका केस का एक भी khrcha उसे करने कि जरुरत नहीं है ये सब बकील करेगा । claint तो केवल उस मिलने वाली रकम में हिस्स्सेदारी निभाएगा और पैसा एक भी नहीं लगाएगा और न ही तारीखों पे आएगा ।

जानकारों के मन में कुछ उठा पाठक चलने लगी है पर ........ बात अभी बाकी है
किसी करण कोई लेट हो गया जिससे उसे नुक्सान हुआ तो इसके लिए

भारत में
उसने वाद लाया और फिर महीनो तारीख पे आना और उस के लिए अपना समय गवाया पैसा गवाया और फिर जो फिसला आया उसके मुताबिक एक परेशानी के लिए पूरे समय को दोषी ठहरता है और वो उस लाइन में लग जाता है जिसका कोई अंत नहीं मालूम होता है जैसे कुछ केस ख़तम होने से पहल आदमी ख़तम हो जाते है ।

अमेरिका में


पहले तो वो किसी अधिवक्ता से मिलेगा अपनी परेशानी बताएगा और फिर अधिवक्ता उसे हां या ना कहेगा क्योकि
वहां ये तय होता है कि अगर केस जीतता हूँ तो उसका 20 - 30 or 50 % मैं अपनी फीस के नाम पे ले लूँगा ।
और ये सब लिखित होता है उसके बाद अधिवक्ता उस केस से सम्बंधित साबुत जमा करत है और उसकी फीस खुद जमा करता है ( ये भारत में नहीं होता है ) और पूरा केस खुद लड़ता है अगर हार जाता है तो clint से मतलब नहीं होता कि वो वकील साहब का नुक्सान दे और हाँ अगर जीत जाता है और मुआवजा के रूप में मिलने वाले लाखो रुपये में उसका हिस्सा उसकी फीस होती है ।
तो जब claint को परशानी नहीं होती तो वो केस करने में नहीं हिचकिचाता है ।



भारत में अगर ये क़ानून बना दिया जाये तो वकील कि pozition और भी अच्छी हो सकती है और गरीब भी बेधड़क अपना हक माग सकता है

यहाँ पे यह सुभिधा मुफ्त कानूनी सहायता केवल अनसुचित जाती, जन जाती, महिलाये, बह्चे, विकलांग आदि लोग है इस के लिए क़ानून में 1985 /1995 के क़ानून में परिभाषित किया गया है


पर जरा सोचिये कि कोर्ट में महिलाये बच्चे या विकलांग पूरे दिन कैसे nayayalay में कैसे रहेगा क्योकि महिला है तो खाना बनाना बचो के लिए ये सब नहीं हो सकता है


और अंत में .. . . . . .. . . .


अगर आ जायेगा वो क़ानून यहाँ
तो बकिलो कि हस्तियाँ बन जाये
न हो अँधेरा यहाँ हर कोई सजग हो जाये
घूस को चूस लो उस जहर कि तरह जो
सपेरा जहर निकलता है बचालो अपनी
अर्थवव्स्था , यही तुम्हारा कमाऊ पूत है

( ये जिन्दा रहेगा तो आप फलेंगे फूलेंगे हमारी अर्थ वाव्स्था में
भ्रस्ता चार जहर की तरह है )



अम्बरीष मिश्रा

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